परिणीता भाग :- ४
Parineeta
ललिता हँस पड़ी, ‘‘अभी तो मेरे पास वक्त नहीं है, शेखर ’दा, मैं रुपए लेने आई हूँ।’’
इतना कहकर, उसने तकिए के नीचे दबी चाबी निकाली और अलमारी खोलकर, दराज से कुछ रुपए निकालकर गिने। रुपए आँचल में बाँधकर, उसने स्वगत ही कहा, ‘‘जरूरत के वक्त रुपए ले तो जाती हूँ, मगर इतना सब शोध कैसे होगा ?’’
शेखर ने ब्रश फेरकर, एक तरफ के बाल, बड़े जतन से ऊँचे किए और पलटकर ललिता, की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘शोध होगा नहीं, हो रहा है।’’
ललिता को उसकी बात समझ में नहीं आई। उसकी आँखें शेखर के चेहरे पर गड़ी रहीं।
‘‘यूँ देख क्या रही हो ? समझ में नहीं आया ?’’
‘‘ना-’’ ललिता ने इनकार में सिर हिला दिया।
‘‘जरा और बड़ी हो जाओ, तब समझ जाओगी।’’ इतना कहकर, शेखर ने जूते पहने और कमरे से बाहर निकल गया।
रात को शेखर कोच पर चुपचाप लेटा हुआ था। अचानक उसकी माँ कमरे में दाखिल हुई। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। माँ तख़त पर बैठ गईं।
‘‘लड़की देखी ? कैसी है, रे ?’’
‘‘अच्छी !’’ माँ के चेहरे की तरफ देखते हुए, शेखर ने जवाब दिया।
शेखर की माँ ! नाम भुवनेश्वरी ! उम्र लगभग पचास के करीब आ पहुँची थी, लेकिन तन-बदन इतना कसा हुआ ! इतना खूबसूरत की वे पैंतीस-छत्तीस से ज्यादा की नहीं लगती थीं। ऊपर से उनके ऊपर आवरण के अंदर जो मातृ-हृदय मौजूद था, वह और भी ज्यादा नया, और कोमल था। वे गाँव देहात की औरत। वे गाँव-देहात में पैदा हुईं ! वहीं पली-बढ़ी़-बड़ी हुईं, लेकिन शहर में भी कभी किसी दिन भी बेमेल नहीं नजर आईं। जैसे उन्होंने शहर की चुस्ती-फुर्ती, जीवंतता और आचार-व्यवहार उन्मुक्त भाव से ग्रहण कर लिया, उसी तरह अपनी जन्मभूमि की निबिड़ निस्तब्धता और माधुर्य भी उन्होंने नहीं खोया। यह माँ, शेखर के लिए कितना विराट गर्व थी, यह बात उसकी माँ भी नहीं जानती थी। ईश्वर ने शेखर को काफी कुछ दिया था-अनन्य सेहत, रूप, ऐश्वर्य, बुद्धि-लेकिन, ऐसी माँ की संतान हो पाने का सौभाग्य को, वह समूचे तन-मन से, ऊपर वाले का सबसे बड़ा दान मानता था।
‘‘अच्छी, कहकर तू चुप क्यों हो गया ?’’ माँ ने पूछा।
शेखर ने दुबारा हँसकर, सिर झुका लिया, ‘‘तुमने जो पूछा, वही तो बताया-’’
माँ भी हँस पड़ी, ‘‘कहाँ बताया ? रंग कैसा है, गोरा ? किसके जैसी है ? हमारी ललिता जैसी ?’’
शेखर ने सिर उठाकर जवाब दिया, ‘‘ललिता तो काली है, माँ, उससे तो गोरी है-’’
‘‘चेहरा-मोहरा, आँखें कैसी हैं ?’’
‘‘वह भी बुरी नहीं-’’
‘तो घर के कर्ता से कह दूँ ?’’
इस बार शेखर खामोश रहा। कुछेक पल बेटे का चेहरा पढ़ते हुए, माँ ने अचानक सवाल किया, ‘‘हाँ, रे, लड़की पढ़ी-लिखी कितनी है ?’’
‘‘वह तो मैंने नहीं पूछा, माँ !’’
माँ एकदम से ताज्जुब में पड़ गईं, ‘‘यह कैसी बात है, रे ? जो आजकल तुम लोगों के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, वही बात पूछकर नहीं आया ?’’
शेखर हँस पड़ा, ‘‘नहीं, माँ, यह बात तो मुझे याद ही नहीं रही।’’
बेटे की बात सुनकर, अब वे बाकायदा विस्मित हो उठी और कुछेक पल, उनकी निगाहें, बेटे के चेहरे पर गड़ी रहीं।
अचानक वे हँस पड़ीं, ‘‘यानी तू वहाँ ब्याह नहीं करेगा ?’’
शेखर जाने क्या तो कहने जा रहा था, अचानक ललिता को कमरे में दाखिल होते देखकर, वह खामोश हो गया।
ललिता धीमे कदमों से भुवनेश्वरी के पीछे आ खड़ी हुई।
भुवनेश्वरी ने बाएँ हाथ से उसे खींचकर अपने सामने कर लिया, ‘‘क्या बात है, बिटिया ?’’
ललिता ने फुसफुसाकर जवाब दिया, ‘‘कुछ नहीं, माँ ?’’
वह पहले उन्हें ‘मौसी’ बुलाया करती थी, लेकिन उन्होंने उसे बरजते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारी मौसी नहीं, माँ हूँ।’’
बस, उसी दिन से वह उन्हें ‘माँ’ बुलाने लगी।
भुवनेश्वरी ने उसे और करीब खींचकर, उसे दुलारते हुए पूछा, ‘‘कुछ नहीं ? तो तू मुझे सिर्फ एक बार देखने आई है ?’’ ललिता खामोश रही।
‘‘देखने आई है कि वह खाना कब पकाएगी ?’’ शेखर एकदम से बोल उठा।
‘‘क्यों ? पकाएगी क्यों ?’’
शेखर ने विस्मित मुद्रा में पलटकर सवाल किया, ‘‘तो उन लोगों का खाना और कौन पकाएगा ? उस दिन, उसके मामा ने भी तो यही कहा कि पकाने-परोसने का काम ललिता ही करेगी।’’
माँ हँस पड़ीं, ‘‘उसके मामा की क्या बात है ? कुछ कहना था, सो कहकर छुट्टी पा ली। उसकी तो अभी शादी नहीं हुई, उसके हाथ का खाएगा कौन ? मैंने अपने पंडित जी को भेज दिया है, वे ही पकाएँगे। हमारा खाना बड़ी बहूरानी बना रही है। आजकल दोपहर को मैं वहीं चली जाती हूँ।’’ शेखर समझ गया, उस दुःखी परिवार की जिम्मेदारी, माँ ने अपने ऊपर ले ली है। उसने राहत की साँस ली और खामोश हो रहा।
करीब महीना भर गुजर गया।
एक शाम, शेखर अपने कमरे के कोच पर लेटा-लेटा कोई अंग्रेजी उपन्यास पढ़ रहा था। उस उपन्यास में वह खा़सा मगन हो गया था, तभी ललिता उसके कमरे में दाखिल हुई।
उसने तकिए के नीचे से चाबी निकाली और खट्-खुट् की आवाज के साथ, वह अलमारी का दराज खोलने लगी।
किताब से सिर उठाए बिना ही शेखर ने पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’
‘‘रुपए निकाल रही हूँ।’’
शेखर ने हुंकारी भरी और पढ़ने में ध्यानमग्न हो गया।
ललिता ने आँचल में रुपए गँठियाकर, उठ खड़ी हुई।
आज वह काफी सज-धजकर आई थी। वह चाहती थी, शेखर एक बार उसे देख ले।
‘‘दस रुपये लिए हैं, शेखर दा-’’
‘‘अच्छा !’’ शेखर ने जवाब तो दिया, मगर उसकी तरफ देखा नहीं।
निरुपाय ललिता, इधर-उधर की चीजें उलटने-पलटने लगी; झूठमूठ ही देर तक रुकी रही, लेकिन जब कोई नतीजा नहीं निकला, तो धीमे कदमों से कमरे से बाहर निकल गई। लेकिन यूँ चले जाने से ही तो नहीं चलता। उसे दुबारा लौटकर, दरवाजे पर खड़े होना पड़ा। आज वे लोग थियेटर जा रही थीं।
शेखर की अनुमति बिना वह कहीं नहीं जा सकती, यह बात वह जानती थी। किसी ने उसे शेखर से अनुमति लेने को नहीं कहा, या वह क्यों, किसलिए....ये सब ख्याल, उसके मन में कभी नहीं जगे। लेकिन इंसान मात्र में एक सहज-स्वाभाविक बुद्धि मौजूद है, उसी बुद्धि ने उसे सिखाया था कि भले और कोई मनमानी कर सकता है, जहाँ चाहे, जा सकता है, मगर वह ऐसा नहीं कर सकती। इसके लिए, वह आजाद भी नहीं है। मामा-मामी की अनुमति ही उसके लिए यथेष्ट नहीं है।
दरवाजे की आड़ में खड़ी-खड़ी उसने कहा, ‘‘हम लोग नाटक देखने जा रही हैं-’’
उसकी मृदु आवाज शेखर के कानों तक नहीं पहुँची।
ललिता ने जरा और तेज आवाज में कहा, ‘‘सब लोग मेरे इंतजार में खड़े हैं-’’
इस बार शेखर के कानों तक उसकी आवाज पहुँच गई।
उसने किताब एक ओर रखते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’
ललिता ने ईषत् तमककर जवाब दिया, ‘‘इतनी देर बाद, मेरी आवाज कानों तक पहुँची ? हम लोग थियेटर जा रहे हैं।’’
‘‘हम लोग कौन ?’’ शेखर ने पूछा।
‘‘मैं, अन्नाकाली, चारुबाला का भाई, चारुबाला, उसके मामा...’’
‘‘यह मामा कौन है ?’’ शेखर-- उसका मामा कौन?
ललिता- उनका नाम गिरीन्द्र बाबू है। 5-6 दिन हुए, अपने घर मुँगेर से यहाँ आये हैं। यहीं, कलकत्ते में, रह कर बी० ए० में पढ़ेंगे। बड़े अच्छे आदमी हैं।
शेखर बीच ही में कह उठा-- वाह! नाम, पता, पेशा, सब मालूम कर लिया तुमने तो! देख पड़ता है, इतने ही में खूब हेलमेल हो गया है। इसीलिए चार-पाँच दिन से तुम गायब रहती हो। जान पड़ता है, ताश खेला करती हो?
अचानक शेखर के बात करने का ढंग बदला हुआ देखकर ललिता डर गई। उसे खयाल भी न था कि इस तरह का प्रश्न उठ सकता है। वह चुप हो रही।
शेखर ने फिर पूछा – इधर कई दिन से ताश का खेल होता था – क्यों?